धुन्ध का सफर
- Anupam Prakash
- Aug 24, 2019
- 1 min read
Updated: Aug 30, 2019
धुन्ध पे चलता चलता,
गिरता सम्हलता
टेडी मेढ़ी राहो से गुजरता
कुछ सुनता कुछ सुनाता
ना जाने ये किस सफर पे
चला जा रहा मैं।
इस सफर की कोई मंजिल ना होगी
दो कदम बढ़ा के,
शून्य से चलना होता हैं
फिर किसने शुरू की ये चलन
हज़ारों की भीड़ में
लाखों सफर दिखाई पड़ते हैं
कहाँ जाने निकले हैं लोग
कोई कहीं पहुचता तो नहीं।
धुन्ध का सफर
धुन्ध ही होती होगी
सूरज की रौशनी में
सब खो जाती होगी।

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